यूनानी अनुसंधान
ईसा के पूर्व ३२६ में, मेसेडोनिया का महान सिकंदर, जो कि "एलेक्झांदर ध ग्रेट" के नाम से मशहूर हुआ, विश्व-विजेता बनने की ख्वाहिश में भारत की सीमा तक पहुंच गया। उस वक्त, आज के भारत और पाकिस्तान में बंटा हुआ सारा पंजाब प्रदेश पोरस नाम के राजा के अधिकार में था। झेलम के युध्ध में सिकंदर ने पोरस को पराजित कर के पंजाब से ले कर गुजरात की सीमाएं तक फैला पश्चिम भारत का एक बडा हिस्सा अपने कब्जे में कर लिया। अब सिकंन्दर की ईच्छा पूर्व की ओर आगे बढने की थी। वैसे तो, उत्तर-पूर्व में स्थित मगध के राजवी चन्द्रगुप्त जैसे भारत के अन्य शक्तिशाली नरेशों के मुकाबले, पोरस के पास कोई बहुत बडी सेना नहीं थी। फिर भी, उसने जिस बहादूरी और जोश से सिकंदर का मुकाबला किया, उस से सिकंदर की सेना हतप्रभ हो गयी और उस के होंशले कमजोर पड गये। उस के सभी सेनापति इस बात को ले कर भयभीत हो गये कि, एक छोटे से सीमावर्ती राज्य की सेना ऐसा द्रढ मुकाबला कर सकती है तो सचमुच में बडे राज्यों की सेनाएं कितनी शक्तिशाली होगी। सिकंदर के बहुतेरे सेनापति और सैनिक ओर आगे बढने के खिलाफ हो कर बगावत कर बैठे। उन्हों ने सिकंदर को भारत पर विजय पाने की महत्त्वकांक्षा छोडकर स्वदेश वापस लौटने पर विवश कर दिया। उसने पूर्व में आगे बढने का ईरादा तो छोड दिया, लेकिन अपने सेनापतियों और सेना को सिंधु नदी के किनारे होते हुए अरब सागर की ओर बढने के लिये समझा लिया। पंजाब के उत्तर से सिंधु के रास्ते पर निकलने से पहले उसने अपने स्थपतियों और मजदूरों को बीआस नदी के तट पर यूनान के ओलम्पीअन देवताओं को अर्घ्य देने के लिये बारह वेदियों का निर्माण करने का हूकम किया।

आठ सौ नौकाओं का एक बडा बेडा बनाया गया था और सिकंदर की आधी सेना नौकाओं पर सवार हो कर, जब की बाकी आधी सेना सिंधु के दोनों किनारों पर कूच करती हुई आगे बढी। सिकंदर और उस की सेना को इस रास्ते पर जो भी गतिरोध का सामना करना पडा उस पर उन्होंने आसानी से काबू पा लिया क्यों कि इस क्षेत्र में कोई बडे शक्तिशाली राज्य नही थे। ईसा के पूर्व जुलाई ३२५ में वह अरब सागर में सिंधु के मुख तक पहुंच गया। सिंधु नदी की दोनों प्रशाखाओं के रास्ते अरब सागर के तट तक के समग्र विस्तार की उसने छानबीन की। यहां से उसने अपनी आधी सेना को समुद्र के रास्ते यूनान वापिस भेजा और वह खूद बाकी आधी सेना ले कर जमीन के रास्ते अपने वतन वापिस लौट पडा।



सिकंदर एक महान विजेता ही नही, बल्कि एक समझदार फिलसूफ भी था। जितने समय तक वह भारत में रहा, उसने भारतीय फिलसूफ और पंडितों को आमंत्रित किया और उन्के साथ वाद-विवाद किया। उसने अपने सैनिकों को स्थानिय लोगों से मिलने-झूलने की और यहां की स्त्रीयों से विवाह करने की पूरी स्वतंत्रता दी। इस तरह विवाहित सैनिक अगर चाहें तो भारत में ही स्थायी हो कर रह सकते थे। इस के अतिरिक्त, सिकंदर ने अपने बहुत से प्रतिनिधि भारत में रख छोडे। जब उसकी सेना ने कच्छ प्रदेश से यूनान के लिए लौटना शुरु किया, तब बहुत से यूनानीओं ने यूनान वापिस लौटते वक्त उस लंबे और कठिन रास्ते में पडनेवाली मुसीबतों का सामना करने के बजाय, भारत में ही रहना पसंद किया। सिकंदर ने उनकी ईच्छा पर कोई रोक नही लगायी, बल्कि उसे प्रोत्साहित किया। वह चाहता था कि, भले ही वह भारत पर विजय हांसिल न कर सका, लेकिन वह हमेशां के लिये भारत पर यूनानी सभ्यता की छाप छोड जाये।

ईसा के पूर्व ३२५ में कच्छ विस्तार आनर्त प्रदेश का पश्चिमी सीमावर्ती भाग था। और, आनर्त प्रदेश की राजधानी आनर्तपुर (जिसे हम आज वडनगर के नाम से जानते हैं) बहुत ही समृध्धशाली नगर था। सिकंदर की सेना से विमुक्त हुए यह यूनानी अपने वतन में नगरवासी लोग हुआ करते थे, तो स्वाभाविक रुप से ही वे आनर्तपुर से आकर्षित हो कर कच्छ से उसकी ओर निकल पडे, और यहां पहुंच कर नगर में बस गये। यूनानी उजले वानवाले, घूंघर बालवाले, तेजस्वी आंखेवाले, सुडौल शरीर-सौष्ठववाले, और बुद्धीमान थे। भारतीयों की तरह ही वे अनेक देवी-देवताओं के पूजक थे। यूनान से भारत तक आते हुए रास्ते में उन्हों ने अनेक विजयी युध्ध किये थे और लूट में बहुत धन-दोलत ईकठ्ठी की थी। जो यूनानी समूह आनर्तपुर आये, उनमें पुरुष ज्यादा थे और महिलाएं बहुत कम थीं । लेकिन उनको नगर की सुंदर स्त्रीयों से विवाह करने में कोई बाधा नही आयी। कुछ ही समय में वे नगर के लोगों में पूरी तरह संमिलित हो गये। हाटकेश्वर जिसके ईष्टदेव है वह नागर समाज की उत्पत्ति के बारे में जो अनेक अनुमान प्रचलित हैं, उनमें से एक यह है कि वह सिकंदर की सेना से विमुक्त हो कर जो यूनानी इस नगर में आये उनसे उत्पन्न समाज है।



बहुत समय बित जाने के बाद भी यह किवंदती बनी रही है। शर्मिष्ठा के किनारे और दूसरी जगहों पर हुए पुरातत्त्वीय उत्खनन से जो यूनानी सिक्के और दूसरे यूनानी अवशेष मिले हैं वे इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। नागरों में प्रवर्तमान व्याप्त यह मान्यता कि वे कच्छ से आये हैं, काफि मजबूत जड रखे हुए है और उसे हलके से नहीं ले जा सकता। नागरों और यूनानीओं में जो शारीरिक साम्यता पायी जाती है उकी उपेक्षा करना कुछ मुश्किल सा लगता है। उनमें नगर (शहर) में बसने की जो तीव्र नैसर्गिक झुकाव है, वह जैनिक परिबल के बराबर सी है।
यूनानी लहू नायक और सोमपुरा जैसी अन्य कोमों के लोगों की नसों में भी बहता होगा। यूनानी नाट्य और शिल्प जैसी कलाओं में बहुत निपुण थे। पुराने समय में भारत के विभिन्न प्रदेशों में संगीत और नृत्य कला का विकास तो हुआ था, लेकिन नाट्य-कला में वडनगर के नायक अग्रेसर थे। वैसे ही, यहां के सोमपुरा ने उत्तम यूनानी शिल्पों में जो यथार्थता और सफाई पाये जाते हैं उसी को प्रतिबिंबित करते हुए शिल्पों का सृजन किया। पुरातात्त्विक अन्वेषणों से भविष्य में कोई दिन हमें यूनानी अनुसंधान के ठोस सबूत मिल सकते हैं।

ग्रीस में देवी एथेना का मंदिर

अभी तक तो वडनगर में बहुत कम पुरातात्त्विक उत्खनन हुए हैं। और, जो उत्खनन हुए भी हैं, वह प्रायोगिक कक्षा के और पुराने नगर के बाहरी स्थलों पर हुए हैं। करिब दस चौरस किलो मीटर विस्तार का समग्र कृत्रिम टीला, कि जिस पर पुराना नगर बना हुआ है, अनन्वेषित रहा है; इसे तो पुरातत्त्वविदों ने अबतक छूया तक नहीं है। हो सकता है कि यहीं पर अमूल्य पुरातात्त्विक खजाना सारे विश्व के समक्ष खुला होने की राह देखता गडा पडा हो।