हमारे बारे में

वडनगर विश्वभर के दर्शकों को पश्चिम भारत में स्थित यह अभूतपूर्व प्राचीन नगर की झांकी कराने का एक प्रयास है। हमारा ध्येय प्रामाणित सबूतों पर आधारित इस नगर का अधिकृत इतिहास पेश करना है। दृष्य माध्यम का बहुल उपयोग प्रस्तुति रसप्रद बनाने हेतु किया गया है। एक तरह से, अभी तक वडनगर भूला-बिसरा शहर था। पिछ्ले कुछ वर्षों में यहां हुए पुरातात्त्विक उत्खनन से जो चौंकानेवाले अवशेष निकले हैं, उन्होंने विश्वव्यापी ध्यान आकर्षित किया है। और इस नगर के बारे में जानकारी हांसिल करने में लोगों की रुचि बढ गयी है।

हमारा यह प्रयत्न सर्व-साधारण दर्शक को नजर में रखता है, लेकिन युवा पीढी की ओर विशेष लक्ष्य दिया गया है।

यह वेब साईट सतत विकसित होती रहे ऐसा उद्देश्य है। जिनको भी इसे और समृध्ध बनाने में रुचि है, उन सभी लोगों का स्वागत है। कृपया, vadnagar@gmail.com पर हमारा संपर्क करें।
ऋण स्वीकृति
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निर्माण और आलेखः
हरजीवन सुथार

छबीकलाः
रमेश गज्जर (मुख्य छबीकार)
धनलक्ष्मी साकरिया
रमेश साकरिया
बिपीन जी. शाह (मोढेरा की छबियां)
पूजा शाह
डॉ. शरद शाह (लोथल की छबियां)

इतिहासकारः
प्रोफ. रतिलाल भावसार
डॉ. मकरंद महेता

स्त्रोतः
डॉ. एस. आर. राव
श्रीमति ईन्दुबेन वीरेन्द्र राय व्होरा
वाय. एस. रावत, मुख्य पुरातत्त्ववीद, गुजरात राज्य
वडनगर संग्रहालय, गुजरात सरकार
विजय मिस्त्री
हर्षदभाई मयाभाई महेता


ताना और रीरी की कहानी
सोलहवीं सदी में भारत पर महान मुगल बादशाह अकबर की हकूमत थी। उसका मुख्य संगीतकार तानसेन विभिन्न रागों का उस्ताद गवैया था। जब अकबर ने सुना कि तानसेन दिपक राग इतनी अच्छी तरह गा सकता है कि उस की शक्ति से दिये जल उठते हैं, तब उसने तानसेन की कसौटी करने की ठान ली। एक दिन राज-दरबार में अकबर ने तानसेन को दिपक राग गाने के लिये कहा। तानसेन ने बादशाह से बहुत आजीजी की कि उसे दिपक राग गाने के लिये आग्रह न किया जाय, क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि उसका क्या दुष्परिणाम आ सकता है। लेकिन बादशाह जिसे कहते हैं, अकबर ने उस संगीतकार की एक न मानी और दिपक गाने का फरमान कर दिया। तानसेन बेचारा दिपक राग गाने पर मजबूर हो गया।

तानसेन ने दिपक राग गाना शुरु किया और जैसे वह उसकी चरम सीमा पर पहुंचा, तो सचमुच सारे महल में रखे गये दिये अपने आप जल उठे। बादशाह अकबर सहित सारे दरबारी चकित हो कर तानसेन पर आफरिन हो गये। लेकिन, उधर राग दिपक की असर से तानसेन का पूरा बदन जैसे आग से भीतर ही भीतर जलने लगा। तानसेन को मालुम था कि दिपक गाने से उसके बदन पर ऐसी बितेगी, ईसी लिये वह गाना नही चाहता था। लेकिन बादशाह के खौफ से डर कर जब उसने दिपक गा ही लिया, तो अब यह हालत हो गई। अपने बदन में जलती हुई आग बुझाने का सिर्फ एक ही रास्ता था; और वह था मल्हार राग गाना। शुध्ध मल्हार राग बरसात बरसाने की क्षमता रखता है और उससे दिपक गानेवाले के बदन को शाता भी मिलती है। लेकिन तानसेन खूद तो शुध्ध मल्हार जानता नही था। और न तो अकबर के दरबार में और कोई गवैया वह जानता था। तब जलते हुए बदन से परेशान तानसेन ऐसे कोई संगीतकार की तलाश में दिल्ही छोड कर निकल पडा। वह सारे मुल्क में घूमता रहा, लेकिन उसे मल्हार का कोई सच्चा गवैया नही मिला। तब जा कर कहीं से उसे मालुम हुआ कि वडनगर में कला और संगीत का बहुत जतन होता है और वहां उसे मल्हार का कोई सच्चा कलाकार मिल सकता है।
तानसेन जब वडनगर पहुंचा तो रात ढल चूकी थी। उसने शर्मिष्ठा के किनारे ही रात बिताने चाही। प्रातःकाल में नगर की स्त्रीयां सरोवर से पानी भरने हेतु आना शुरु हुई। तानसेन उनको गौर से देखने लगा। उनमें ताना और रीरी नाम की दो बहेनें भी शामिल थीं। उन्हों ने अपने घडे पानी से भरे, लेकिन ताना ने तुरंत ही अपना घडा खाली कर दिया। उसने ऐसा कई बार किया। तानसेन यह देख रहा था। रीरी ने ताना से पूछा, "बहन, ऐसा कितनी बार करोगी?" तो ताना ने जवाब दिया, "जब तक हमें घडे से मल्हार राग सुनाई न दे।" आखिरकर, जब वह घडा ईस तरह भरने में कामियाब हुई कि उसके अंदर जाते हुए पानी की आवाज से मल्हार राग निकला, तब संतुष्ट हो कर बोली, "अब चलें।"
तानसेन, जो उनकी बातचित सुन रहा था; वह बहुत ताज्जुब हुआ। उसको पक्का विश्वास हो गया कि मल्हार की सच्ची जानकारी रखनेवाले की उसकी खोज आखिरकर मुकाम पर पहुंच ही गई। अपने दोनों हाथ जोडे वह दोनों बहनों के सामने जा कर बोला, "मैं एक ब्राह्मण हूं। मैं दिपक राग जानता हूं और बादशाह के हुकूम पर मैंने दिपक गाया। तो अब मेरा पूरा बदन उसकी आग से जल रहा है। मैं मल्हार तो जानता नही हूं। अब आप ही मुझे बचा सकती हो। वरना, मैं मेरे बदन के भीतर लगी आग से मर ही जाउंगा। कृपया, मल्हार गाईए कि जिससे मेरे भीतर की आग बुझ जाये और मुझे शाता मिले। कृपया, मुझ पर रहम कीजिये।" अचानक एक अजनबी से ऐसी विनति सुन कर ताना और रीरी अवाक रह गयीं, लेकिन उस आदमी की पीडन देख कर उन्हें उस पर दया आयी। उन्हों ने उसे तब तक राह देखने के लिये कहा, जब तक वे बडों की सलाह न ले ले। जब नगर के वरिष्ठ नागरिकों ने ताना और रीरी की बात सुनी, तब यह तय किया गया कि उस ब्राह्मण को शाता पहुंचाने हेतु दोनो बहनों को मल्हार गाना चाहिये।
ताना और रीरी ने मल्हार गाना शुरु किया। थोडी देर में तो आकाश काले काले बादलों से घिर गया और जल्द ही बरसात बरसने लगी। जब तक उन्हों ने गाना बंद न किया, तब तक जोरों से बरसात होती रही। बरसात के ठंडे पानी में तानसेन पूरा भिग गया और उसके बदन के भीतर लगी आग भी अजायब सी शांत हो गई।
उस बिच ताना, जो कि दोनों बहनें में बडी थी, उस अनजान आदमी को पहचान गयी थी। ब्राह्मण का ढोंग रचाये आया वह आदमी सचमुच में तानसेन के सिवा और कोई नही हो सकता था। क्योंकि ताना को मालुम था कि ईस दुनिया में सच्चा दिपक गानेवाला सिर्फ एक तानसेन ही है। उसी तरह सच्चा मल्हार ताना-रीरी के सिवा और कोई नही गा सकता था। तो कुछ, तानसेन जैसे महान संगीतकार को अपनी कला का परचा दिखा देने के बाद गर्विष्ठ हो कर ताना बोल पडी, "क्यों मियां तानसेन, अब तो शाता हुई न?"
इस सवाल सुनते ही तानसेन की सच्ची पहचान सबके सामने आ गई, तो तानसेन के होश उड गये क्योंकि उसको लगा कि अब नगर के लोग उसे मार देंगे। उसने दोनों हाथ जोड कर सबसे माफी मांगी और अपनी जान बचाने के लिये आजीजी की। वडनगर के लोग संगीत के प्रेमी थे और उदार दिलवाले भी थे। उन्होंने तानसेन की विषम स्थिति को समझा, लेकिन वे उसे एक शर्त पर जिंदा छोडने पर राजी हुए। वह शर्त थी कि, तानसेन यह वचन दे कि ताना-रीरी के बारे में वह कभी किसी से कोई बात नही बतायेगा। तानसेन ने शर्त मंजूर कर ली और वचन दे दिया, तो नगर के लोगों ने उसे जिंदा जाने दिया।
तानसेन दिल्ही वापस आया। उसे दिपक की जलन से मुक्त देखकर अकबर बडा ताज्जुब हुआ। उसने पूछा, "तानसेन, तुम तो कहते थे कि तुम्हारी जलन का कोई उपाय नही है। लेकिन अब तो तुम अच्छे हो गये हो। यह कैसे हुआ? किसने तुम्हारी जलन शांत की?" तानसेन पूरा जवाब नही देना चाहता था तो , बोला, "हे, महान अकबर, हिन्दुस्तान में घूमता हुआ मैं एक ऐसी जगह पहुंचा कि जहां मुझे सच्चा मल्हार राग सुनने मिला और मेरी जलन शांत हो गई।" अकबर उसके जवाब से संतुष्ट नही हुआ; वह जानना चाहता था कि कौन ऐसा संगीतकार है जो कि सच्चा मल्हार गा सकता है। तब बादशाह ने सख्ताई से तानसेन को पूछा, "बताओ किसने सच्चा मल्हार गाया? और कहां पर?"
अब बादशाह का रुख देख कर तानसेन गभराया। अगर वह पूरी बात बता देता है तो उसने वडनगर में जो वचन दिया था, उसका भंग होता था। लेकिन वह अच्छी तरह जानता था कि वह सच्ची बात नही बतायेगा तो उसके उपर बादशाह का खौफ उतर आयेगा। बादशाह ने और सख्ती से पूछा, "बोलो, कौन और कहां?" तानसेन डर गया; उसे लगा कि उसकी जान जोखिम में है। भयभित तानसेन ने जो भी वडनगर में हुआ था वह सब कुछ सच-सच बादशाह को बता दिया। तानसेन ने ताना-रीरी के संगीत कौशल्य की बात करते हुए उनके सौंदर्य और भलाई की भी बहुत सराहना की।
कमनसीबी से अकबर और तानसेन की यह बातचीत बादशाह की कई बेगमों के शाहजादों में से दो शाहजादे छिपकर सुन रहे थे। ताना-रीरी की बात सुनकर वे दिवाने से हो गये। उन्हों ने अपने लिये ताना और रीरी का अपहरण करने की साजिस की। जल्दी ही दोनों शाहजादे चोरी-छुपी अपने घोडे पर सवार हो कर अकेले ही वडनगर की ओर निकल पडे।
कुछ दिनों के बाद जब दोनों वडनगर पहुंचे तो रात हो गई थी। नगर के किले के दरवाजे बंद हो चूके थे, तो उन्हों ने किले के बाहर ही रात बिताना मुनासिब माना। उन्हों ने शर्मिष्ठा सरोवर के किनारे पर लगे हुए एक बडे बनियन के पेड तले जगह पसंद की। उन्हों ने सोचा कि जैसा कि तानसेन ने अपनी बात में बताया था सुबह में जब ताना और रीरी पानी भरने झील के किनारे आयेंगी वे उन्हें देख सकेंगे।
जब शर्मिष्ठा सरोवर पर उषःकाल हुआ तो दोनों शाहजादे जाग उठे और राह देखने लगे। जल्दी ही सुबह के सूरज की किरनें उसके के पूर्व किनारे पर निकल आयी। झील-मिलाते सुनहरे पानी से झील अत्यंत सुंदर दिखती थी। अब, हररोज की तरह नगर की स्त्रीयां किनारे पर पानी भरने आनी शुरु हो गई। थोडी ही देर में, ताना और रीरी भी एक दूसरे के साथ हंसी-मजाक करती उधर आयीं। शाहजादों को यह जानने में कोई दिक्कत नही हुई कि वे कौन थीं, दूरी से भी वे अन्य स्त्रीयों से एकदम अलग जो लगती थी। दोनों बहनें कपडे के छन्ने अपने घडों के मुंह पर रख कर पानी भरने लगी।
जब घडे पानी से भर गये, तो दोनों बहनें वह कपडे के टूकडे हवा में झटक कर सूखाने लगी। अपनी दिवानगी में शाहजादे समझे कि वे कपडे हिलाकर उन्हें बुला रही हैं। और जल्द ही वे पेड तले से निकल आये और जोरों से बोल पडे, "माशा अल्लाह, कितनी सुंदर हैं दोनों।" सरोवर के किनारे पर ईकठ्ठी हुई सभी स्त्रीयां दो अनजाने आदमीयों को देख कर चौंक पडी और जोर जोर से मदद के लिये चिल्लाने लगीं। जल्द ही नगर के कई लोग उधर पहुंच गये और शाहजादों को पकड लिया। अपने जूनुन में बिना कुछ सोचे समझे उन लोगों ने शाहजादों को मार डाला। उनके घोडों को भी मार दिया। और सभी को सरोवर के किनारे जमीन में गाड दिया।
उधर, जब अकबर को मालुम हुआ कि उसके दो शाहजादे लापता है, तो उसने अपने सैनिकों को उन्हें ढूंढ निकालने का हुकूम दे दिया। कुछ समय के बाद पता चला कि दोनों शाहजादे ताना-रीरी को पाने की फिराक में अकेले ही वडनगर चले गये थे और उधर नगरवासीओं ने उन्हें कत्ल कर दिया है। अब बादशाह धुआं-पुआं हो गया। उसने फौज को वडनगर जा कर नगरवासीओं को सजा करने और ताना-रीरी को कैद कर दिल्ही ले आने का हुकूम किया।
कुछ ही दिनों में बादशाह की फौज वडनगर आ पहुंची। उसने नगर के लोगों की कत्लेआम की, नगर को जला दिया, और ताना-रीरी को पकड लिया। सैनिकों ने दोनों बहनों को एक पालखी में बिठा कर दिल्ही की और कूच करने की तैयारी की। लेकिन दोनों बहनें यह तय कर चूकी थीं कि दिल्ही जाने से बहेतर ये होगा कि वे मर ही जाये। जब उनकी पालखी नगर के दरवाजे के बाहर आये हुए महाकालेश्वर मंदिर के पास पहुंची, तो उन्हों ने अपनी अंगूठीओं पर लगे हिरों को चूस लिया और उसके जहर से मर गयीं।
उनकी चिताएं उधर ही जलाई गयी। कुछ समय बाद वहां पर उन की याद में वहां दो मंदिर बनाये गये। प्राचीन नगर वडनगर के लोग ताना और रीरी को कभी भी भूल न सके।

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सच्चा मल्हार गाने से बरसात हो सकती है।





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सोलंकी शासक
तीन शतक से भी ज्यादा समय तक सोलंकी शासकों ने वडनगर के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। सन ९४२ में मूलराज ने गुजरात में सोलंकी वंश की स्थापना की और उसी ने मालवा के शासकों को वडनगर के आसपास के प्रदेश से खदेड दिया। मालवा के शासकों ने यह नगर का भरपूर शोषण किया था और उसकी वजह से वह अपनी चमक-दमक खो बैठा था। मूलराज सोलंकी बहुत सक्षम शासक था। उसने सन ९४२ से ९९५ तक की ५३ वर्ष जितनी लंबी अवधि तक राज किया और गुजरात को स्थिरता तथा आबादी प्रदान की। उस के शासन के साथ ही गुजरात की राजधानी पाटण के लीए ही नहीं, लेकिन वडनगर के लिये भी सुवर्णकाल की शुरुआत हुई।
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नगर में बहुत सारे नये मंदिर बनाये गये और पुराने मंदिरों का पुनःनिर्माण किया गया। शर्मिष्ठा के दक्षिणी किनारे पर एक सुआयोजित बाजार ने आकार लिया। पत्थरों से ढके पक्के रास्ते बनाये गये। नगर को अन्य प्रदेशों से जुडते रास्तों के किनारे यात्रिकों के लिये कुएं और वावों का निर्माण किया गया गया।

आज वडनगर में जितने भी शिल्प नजर आते हैं, उन में से बहुतेरे सोलंकी युग में बने।

वडनगर का सांस्कृतिक एवं आर्थिक मूल्य समझते हुए सोलंकी नरेश कुमारपाल ने सन ११५२ में नगर के किले का पुनःनिर्माण कर के उसे और भी मजबूत बनाया।

लगभग तेरहवें शतक के अंत तक यह नगर सोलंकीओं के शासन तले अच्छी तरह सुरक्षित रहा और इस के व्यापार-उद्योग फले-फूले। सन् १२९७ में दिल्ही सलतनत ने गुजरात जीत लिया। सुलतान के लश्कर ने वडनगर पर हमला किया, उसे लूटा, जलाया, और उस के प्रमुख नागरिकों को कत्ल किया। मझबूत किला कोई काम न आया, क्योंकि उसका रक्षण करनेवाला कोई सैन्य वहां था ही नहीं।

पाटण
आनर्त राज्य का अस्त होने के बाद पाटण गुजरात की राजधानी बना। सन ७४५ में वनराज चावडा ने उसे स्थापित किया। सन ९४२ और १२४४ के बीच, तीन सदियां तक वह सोलंकी राजवी मूलराज, कुमारपाल, और सिध्धराज की राजसत्ता में अपने विकास और वैभव के शिखर पर रहा। उस समय में संपत्ति और संस्कारिता में उस की बराबरी का एक भी और शहर सारे पश्चिम भारत में कहीं पर नहीं था।

सन १२४४ में पाटण को वाघेला राजवीओं ने हथिया लिया, लेकिन वे कोई ज्यादा ताकतवर साबित नहीं हुए। सन १३०४ में दिल्ही सलतनत ने गुजरात जीत लिया और पाटण में उस का सुबा राज्य की सत्ता संभाले रहा। सन १४११ में सुलतान अहमद शाह गुजरात की राजधानी पाटण से अहमदाबाद ले गया।
अर्जुनबारी दरवाजा
छः दरवाजे
सन ११५२ में सोलंकी नरेश कुमारपाल का बनवाया हुआ छः दरवाजेवाला एक रक्षात्मक किला समग्र पुराने नगर के आसपास था। शर्मिष्ठा सरोवर के तट पर पूर्व दिशा के सन्मुख स्थित, अर्जुनबारी दरवाजे पर लगी पत्थर पर नक्काशी गयी पटिया इसका प्रमाण देती है। आज तो किले की ज्यादातर दीवार नष्ट हो चुकी है, लेकिन छः में से पाँच भव्य दरवाजे लगभग अखण्ड खड़े हैं। हर एक विद्यमान दरवाजा अलग अलग परिकल्पना (डिजाइन) में बनाया गया है। ये उच्च कोटि की कारीगरी के नमूने हैं।

दरवाजे की दीवारों पर यहां-तहां बिखरे कई सुंदर शिल्प हैं। जैसा कि खाजुराहो व अन्य जगहों पर पाया जाता है, यहां भी कुछ एक रोमांच भरे कमनिय शिल्प नजर आतें हैं; यह कुछ उंचाई पर और छोटे कद में हैं। लेकिन ऐसी सार्वजनिक जगहों में उनका होना यह बात का प्रमाण है कि उन दिनों काम-वृत्ति को खुले मन से देखा जाता था।

नदीओल दरवाजा, जिसका शब्दशः अर्थ "नदी की ओर का दरवाजा" होता है, कुछ अच्छी स्थिति में बना रहा दरवाजा है। इस के उपर जो शिल्प हैं, वे सबसे अधिक सुंदर हैं।

पुस्तकालय


दोनों पुस्तकालय शर्मिष्ठा के किनारे पर हैं

वडनगर भाग्यशाली रहा कि उसे आज से एक सौ साल से भी पहले सन १९०५ में एक अच्छा पुस्तकालय मिला। यह पुस्तकालय की सुंदर दो-मंजिला इमारत शर्मिष्ठा सरोवर के किनारे पर नगर के बडे श्रेष्ठी और दानवीर शेठ भोगीलाल चकुलाल शाहेकरणवाला ने अपने पिताजी की याद में बनवायी। इसका नाम रखा गया 'शेठ भोगीलाल चकुलाल विद्यावर्धक पुस्तकालय' और उसका व्यवस्थापन करने के लिये एक ट्रस्ट रचा गया।

यह छोटे से पुस्तकालय का चित्ताकर्षक फर्नीचर विक्टोरीअन शैली का है और आज भी देखनेलायक लगता है। पुस्तकालय की अलमारियां अपने जमाने के चुने हुए पुस्तकों से भरी पडी हैं। यहां पर नगर के लोग न सिर्फ पुस्तकें और सामयिक पठने, बल्कि चर्चा-विचार करने भी इकठ्ठा होते थे। यह नगर की विद्याभिमुख संस्कारिता को बढावा मिल सके ऐसा वातावरण यहां खडा किया गया था।
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शेठ श्री पुरुषोत्तमदास नरभेराम पटेल के दान से बना नया पुस्तकालय

नगर के लोगों की वाचन-रुचि को देखते हुए यह पुस्तकालय छोटा मेहसूस होने लगा, तो महिलाएं और बच्चों के लिये एक दूसरा और बडा भवन निर्माण करने की योजना बनायी गयी। और यह भवन सन १९३५ में शेठ श्री मयाभाई मणीलाल महेता, जो कि अपने समय के एक अग्रणी व्यापारी और दृष्टिसभर नेता थे, के प्रयत्नों से साकार हुआ।

इस नये आधुनिक भवन के निर्माण के लिये नगर के एक अन्य बडे व्यापारी शेठ श्री पुरुशोत्तमदास नरभेराम पटेल ने उदार हाथों दान दिया।

क्षतिग्रस्त भवन

यह नया भवन पहले पुस्तकालय से कुछ ही कदम दूर शर्मिष्ठा के किनारे पर ही बना। सन १९३५ में बना यह भवन वास्तुकला व इंजीनियरी कौशल्य का अदभूत नमूना है - जगह की कमी होने के कारण यह भव्य दो-मंझिला इमारत, जिस के उपर एक बडा घंटा-घर भी है, आधी जमीन पर और आधी उंचे खंभों के सहारे शर्मिष्ठा सरोवर में बनायी गयी है। अभी कुछ साल हुए यह इमारत थोडी झूक गयी है। कहा जाता है कि उसके नजदीक किये गये अविचारी खोदकाम के कारण जमीन के नीचे बनायी गयी सीमेंट कोंक्रीट कुछ कड़ी (beam) क्षतिग्रस्त हो गयी, तो इमारत का संतुलन बिगड गया और वह एक तरफ झूक गयी। अगर जल्द ही कोई इंजीनियरी कौशल का उपयोग करते हुए इस इमारत को न बचाया गया, तो एक दिन वह पूरी की पूरी शर्मिष्ठा में ढह जा सकती है। पुस्तकालय का यह भवन आधुनिक वडनगर का एक महत्वपूर्ण प्रतिक है। भावि पीढियां के लिये इसे बचाया रखना अत्यंत आवश्यक है।



अप्रैल १८, २००९
आखिर झूका हुआ पुस्तकालय का भवन गिर ही गया । नगर ने एक भव्य ऐतिहासिक विरासत खो दी ।





मोढेरा का सूर्य मंदिर
सन १०२५-२६ में निर्मित, मोढेरा का सुर्य मंदिर वडनगर के सूर्य मंदिर से कई गुना विशाल है और वह है भी ज्यादा अच्छी स्थिति में। दोनों मंदिरों से सूर्य की मुख्य प्रतिमा गायब है। निर्विवादरुप से मोढेरा का मंदिर वडनगर के मंदिर के बाद बना हुआ है।


मोढेरा का सूर्य मंदिर संकुल तीन अलग अलग हिस्सों का बना हुआ है। समग्र संकुल पुर्वाभिमुख है और पुर्व से पश्चिम दिशा में जाता है। पूर्व में सबसे पहले विशाल सूर्य कुंड है। उस की लंबाई ५३.६ मीटर और चौडाई ३६.६ मीटर है। यह समकोणीय कुंड विभूषित शिल्प से भरी सीढियांवाली दिवारों का बना है। सूर्य कुंड स्वच्छ पानी से भरा रहता था। सुबह के सूर्य प्रकाश में झगमगाता हुआ भव्य मंदिर और उस का विशाल कुंड के पानी में दिखाई देता झिलमिल प्रतिबिंब, पूर्व से आते हुए किसी भी मुलाकाती के सामने एक अदभूत दृष्य खडा करता होगा।

यह संकुल का दूसरा हिस्सा है सभा मंडप। यहां पर विभिन्न प्रकार की धार्मिक प्रवृत्तियां - प्रार्थना, नृत्य और संगीत सभाएं - होती होगी। समग्र संकुल में सभा मंडप बारिक अलंकृत शिल्पों से सब से अधिक प्रचूर है। यहां पर हर एक शिल्प इतना सुंदर है कि उन के शिल्पकारों के कला-कौशल्य पर आश्चर्य होता है। रेतीले पत्थरों में ईतना बारिक और जीवंत शिल्प विश्व में अन्य किसी स्थान पर नही है। पूरा सभा मंडप एक संपूर्ण संतुलित ढांचा है। विश्व में पत्थरों के जो भी सर्जन देखने मिलते हैं, उन में यह सूर्य मंदिर का सभा मंडप गर्व से अपना स्थान बनाये हुए है।

यह संकुल का तीसरा हिस्सा सूर्य का मंदिर स्वयं है। सूर्य के मंदिर के दो भाग है - गर्भ गृह और गूढ मंडप। गर्भ गृह में सूर्य की प्रतिमा हुआ करती थी।


पूरा मंदिर संकुल विभिन्न प्रकार के सुंदर शिल्पों से भरा पडा है। इन में सूर्य देव की अनेक अलग अलग प्रतिमाएं हैं। किंतु इन प्रतिमाओं में, गर्भ गृह के द्वार के ठीक उपर आयी सूर्य को बैठे हुए दिखाती ग्यारह प्रतिमाएं ध्यानाकर्षक हैं। समग्र विश्व में, मोढेरा के सूर्य मंदिर के सिवा, अन्य किसी स्थान पर सूर्य देव को बैठे हुए दिखाती एक भी प्रतिमा नही है। वास्तव में, विश्व में कहीं पर भी सूर्य देव के इतने वैविध्यपूर्ण और इतने सुंदर शिल्प नहीं हैं।

मोढेरा के सूर्य मंदिर के बारे में ज्यादा जानकारी के लीए देखें:
१. सूर्य मंदिर मोढेरा (विजय एम. मिस्त्री, केतन एम. मिस्त्री, और मणीभाई मिस्त्री द्वारा निर्मित और धीरु मिस्त्री और ऋषिराज मिस्त्री द्वारा दिग्दर्शित एक बहुत सुंदर डोक्युमेन्टरी विडियो )
२. मोढेरा लेखक मणीलाल मूलचंद मिस्त्री (श्री सयाजी बाल ज्ञानमाला, १९३५ द्वारा प्रकाशित एक आधिकारिक पुस्तक)

मंदिरों का नगर
वडनगर को मंदिरों का नगर भी कहा जा सकता है। यहां विभिन्न देवी-देवताओं के ईतने सारे मंदिर हैं कि हर सौ गज के अंतर पर कोई न कोई छोटा-बडा मंदिर अवश्य दिखाई देता है। इन में से कुछ एक बहुत पुराने हैं, और कुछ कम पुराने हैं। पुराने मंदिर लाल और पीले रेतीले पत्थरों से बने हुए हैं, जब कि आधुनिक समय में बने मंदिरों में पत्थरों के उपरांत ईंटे और सीमेंट का भी उपयोग किया गया है। सभी मंदिरों में मनमोहक शिल्प देखने मिलते हैं। नगर में दो बडे मंदिर-संकुल हैं - एक अमथेर माता मंदिर, और दूसरा हाटकेश्वर मंदिर।



अमथेर माता मंदिर
वडनगर के एकदम पूर्व भाग में स्थित अमथेर माता मंदिर नगर का सबसे पुराना हयात मंदिर है। वास्तव में कभी यह अनेक छोटे-बडे मंदिरों का एक बडा संकुल रहा होगा, लेकिन आज इन में से सिर्फ छः मंदिर बचे हैं। यह मंदिर नक्काशीदार पत्थरों के विशाल उंचे ओटे पर बनाये गये है, जो कि कुछ खाजुराहो के मंदिरों की याद दिलातें हैं। इन में जो सब से बडा मंदिर है उसका द्वार पश्चिम की ओर है; और उस में अभी तो अंबाजी माता की प्रतिमा बिराजमान है। उस के बाहरी हिस्सों में पार्वती, महीषासुमर्दिनी, और अन्य देवताओं की मूर्तियां हैं। अंबाजी मंदिर के पिछे विष्णु, सप्तमातृका, सूर्य, एवं अन्य देवताओं के छोटे मदिर हैं। इन में सूर्य का मंदिर इस लिये ध्यान खिंचता है कि गुजरात में सिर्फ दो ही सूर्य मंदिर हैं - एक वडनगर में, और दूसरा मोढेरा में।



दोनों मंदिरों से सूर्य की मुख्य प्रतिमा गायब है। पूरे संकुल को देखते हुए यह लगता है कि, यहां से बहुत कुछ नष्ट हो चूका है, और जो बचा है वह जो था उसका अंश मात्र है। हो सकता है कि इस संकुल के बहुत कुछ अवशेष आसपास के विस्तार में जमीन के नीचे डटे हुए पडे हो, और वे नगर के पुरातन अवशेष साबित हो।


हाटकेश्वर मंदिर
हाटकेश्वर मंदिर संकुल ज्यादा बडा है और उस की ख्याति भी ज्यादा है। यह मंदिर समूह तेरहवीं सदी में बना हुआ है। इस में मुख्य मंदिर शिव को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि वर्तमान शिव मंदिर का निर्माण भले ही तेरहवीं सदी में हुआ हो, लेकिन इसी स्थान पर हजारों वर्षों से शिव मंदिर अस्तित्त्व बनाये हुए है। अगर पुराने धर्मग्रंथों को माना जाय, तो यह शिव मंदिर महाभारत काल से भी पहले का है; और हाटकेश्वर का शिवलिंग स्वयं प्रकट हुआ 'स्वयंभू शिवलिंग' है। मंदिर के गर्भगृह में जहां पर शिवलिंग स्थित है, वह स्थान वर्तमान मंदिर के स्तर से बहुत नीचा है। शायद, यह हकीकत इस बात की द्योतक है कि पुराने ढांचे के मलवे पर नये मंदिर का निर्माण हुआ हो।



हाटकेश्वर मंदिर प्रशिष्ट शैली में बनाया गया है। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्वाभिमुख है, लेकिन उत्तर और दक्षिण दिशाओं में उस के अन्य दो द्वार भी हैं। सभी द्वार भव्य हैं, और वे बारिक शिल्प से अलंकृत हैं। तीनों द्वारों से मंदिर के विशाल व हवादार मध्य-खंड में जाया जा सकता है। मध्य-खंड एक बहुत बडे गुंबज से ढका गया है। मध्य-खंड के पश्चिम में गर्भगृह है, जहां जाने के लिये कुछ एक सीढियां नीचे उतरनी पडती है। यहां पर विख्यात शिवलिंग बिराजमान है। इस के बराबर उपर बहुत उंचाई पर मंदिर का मुख्य शिखर है। यहां से उपर की ओर नजर डाली जाय तो ऐसा लगता है कि मानों हम अंतरिक्ष में खडे हैं। यहां निरव शांति और दिव्यता का अनुभव होता है।

हाटकेश्वर के समग्र मंदिर में बहुत सुंदर और बारिक शिल्प प्रचूर मात्रा में देखने मिलते हैं। मंदिर के अंदर और बाहर की दिवारों पर पुराण, रामायण, महाभारत, और अन्य कथाओं के दृष्यों को साकार करते जीवंत से लगते अनेक शिल्प हैं। कहीं पर भी बिनाशिल्प जगह नहीं दिखती। यह विभूषित शिल्प ही हाटकेश्वर की पहचान अन्य मंदिरों से अलग बनाते हैं।

सोमपुरा मंदिर

लोथल
मोहें-जो-दरो और हरप्पा के बाद सिंधु सभ्यता का तीसरा सब से बडा खोज निकाला गया नगर है लोथल। वह भारत के गुजरात राज्य में अहमदाबाद शहर से ८३ कीलो मीटर (५३ माईल्स) दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। सन १९५५ से १९६२ के वर्षों में वह आर्कीओलोजिकल सर्वे ओफ ईंडिया द्वारा विख्यात पुरातत्त्वविद डॉ. एस आर. राव के नेतृत्व में खोज निकाला गया था।


सरदार पटेल युनिवर्सिटी के प्राद्यापकों और विद्यार्थीओं के साथ डॉ. एस. आर. राव, १९६१

ईसा के पहले २,५०० और १,९०० के वर्षों में लोथल एक विकसित बंदरगाह था। वह चौडी साबरमती नदी द्वारा खंभात की खाडी से जुडा एक संरक्षित बंदरगाह था। बाद के वर्षों में खंभात की खाडी इस स्थल से पीछे हट कर पश्चिम की ओर चली गयी। उन दिनों, लोथल से नदी के रास्ते पश्चिम भारत में स्थित अन्य कई हरप्पा सभ्यता के नगरों तक पहुंचा जा सकता था। इस के कारण लोथल का व्यापारी महत्त्व बहुत बढ गया था। अपने समय में, वह पश्चिम भारत से लायी गयी अनेक प्रकार की चीजें अरबी समुद्र के रास्ते बाहरी दुनिया के देशों में निर्यात करता था और वहां से विविध चीजें यहां आयात करता था।



सन १९५५ में प्रारंभ हुए पुरातात्त्विक उत्खनन के आरंभ में ही यहां पर एक साथ कई बडे जहाज ठहर सके ऐसा एक बडा जहाजवाडा खुदाई में बाहर निकल आया। यह जहाजवाडा पकाई हुई उच्च गुणवत्तावाली ईंटों से बनाया गया था और उसमें विभिन्न ऋतुओं के बदलाव, पानी का बहाव, और माल-सामान ढोने से होनेवाली घिसाई को अच्छी तरह झेल सकने की क्षमता थी। जहाजवाडा का सबसे अनूठा लक्षण उसकी पानी को नियंत्रित करने की व्यवस्था थी। एक बार जहाजवाडा के अंदर जहाज आ जाने के बाद, यह व्यवस्था के कारण वे ज्वारभाटा तथा भाटा और नदी की बाढ से एकदम सुरक्षित हो जाते थे। अभी तक, पुरातत्त्वविदों को विश्व में कहीं से भी आज से चार हजार वर्ष पहले बनायी गयी ऐसी इंजीनियरी व्यवस्था का नमूना नहीं मिल पाया है।