आनंदपुर

महाभारत के समय में, पाण्डवों और कौरवों के बिच हुए कुरुक्षेत्र के युध्ध के बाद आनर्त राज्य नष्ट हो गया। अब आनर्तपुर न तो किसी राज्य की राजधानी रहा, और न कोई राजसत्ता का केन्द्र। उसके पश्चिम में वल्लभी नाम का एक नया और शक्तिशाली नगर गुजरात की राजधानी बना। परंतु, आनर्तपुर व्यापार का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बना रहा। उसके आसपास के प्रदेश में अच्छी फसलें पैदा होती थी। उसके लोग समृध्ध और खुशहाल थे। वह इस प्रदेश का सांस्कृतिक केन्द्र बना रहा। यह नगर में शिल्पी, संगीतकार, नाट्यकार, नृत्यकार, और अन्य कलाकार पलते रहे। यहां संगीत और नाट्य कला का विकास होता रहा। और सालभर नगर में अनेक उत्सव होते रहते थे। इस जगह में एक प्रकार के आनंद-प्रमोद और खुशी के वातावरण का अनुभव होता था। इसी वातावरण से आकर्षित हो कर दूर-सुदूर के बहुत मुलाकाती यहां आते थे। दूसरे शतक तक तो इस नगर की पहचान ही खुशी और आनंद के नगर के रुप में होने लगी थी। और अब लोग उसे आनंदपुर के नाम से जानने लगे।
यह वो समय था कि जब दो महान धर्म - बौध्ध और जैन - सारे भारत और उसके भी पार फैल रहे थे। जल्द ही में खुशीओं के इस नगर आनंदपुर ने दोनों धर्म के साधुओं और अनुयायीओं को आकर्षित किया। नगर ने कई सौ बौध्ध साधुओं को पाला-पोषा। चारों ओर अनेक बौध्ध मठ बने। कुछ ही समय पहले वडनगर की सीमा पर के एक खेत में जब किसान अपना हल चला रहा था तब आकस्मिक ही जमीं में डटी बुध्ध की एक बडी प्रतिमा हाथ लगी। इसे वडनगर के संग्रहालय में रखा गया है। ख्यातनाम चीनी मुसाफर ह्युएन-संग ने सातवीं सदी में आनंदपुर की मुलाकात ली थी और उसने अपने यात्रा-वर्णन में इस नगर के बारे में विवरण लिखा है। जरुर से यहां कई शतकों तक बौध्ध धर्म पला होगा। अगर पध्धति से व्यापक पुरातत्त्वीय उत्खनन किया जाय तो इस प्रदेश पर रहे बौध्ध धर्म के प्रभाव के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है।
नवीं सदी के बाद भारत में बौध्ध धर्म कमजोर पडने लगा। इसी समय वह आनंदपुर से भी धीरे धीरे अदृष्य हो गया। उस की जगह जैन धर्म जोरों से फैलने लगा और गुजरात पर तो वह पूरी तरह छा गया। वडनगर के मध्य में स्थित दो सुंदर जैन मंदिर इस बात का प्रमाण देतें हैं कि यहां जैन धर्म की असर कितनी ज्यादा थी। सोलंकी युग (दसवीं से तेरहवी सदी) के समय में इस प्रदेश में वडनगर समृध्धि का केन्द्र बना रहा।