आनर्तपुर
वडनगर का सब से पुराना नाम जो हमें ज्ञात हो सकता है वह आनर्तपुर है। आनर्तपुर आनर्त राज्य की राजधानी था। आनर्त, जिसके पिता शर्याति थे, मनु का पौता था। इस प्रदेश पर आनर्त का अधिकार होने से यह आनर्त राज्य बना। महाभारत के समय के पूर्व समग्र पश्चिम भारत में आनर्त राज्य बहुत शक्तिशाली और समृध था। उसका सीमा-विस्तार आज के समग्र गुजरात प्रदेश और राजस्थान, मध्य-प्रदेश, तथा महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में फैला था। आनर्तपुर इसी राज्य की राजधानी था।
महाभारत में आनर्त का संदर्भ कई जगह पाया जाता है। यहां बताया गया है कि आनर्त योध्धाओं ने कुरुक्षेत्र के युध्ध में पांडवों एवं कौरवों की ओर से हिस्सा लिया। "सत्यकी पांडव सेना में एक बडा सेनापति था। वह आनर्तों का सरदार था। कृतवर्मन कौरव सेना में एक सेनापति था" (महाभारत, ९.१७)। कृतवर्मन को आनर्तपुर का निवासी बताया गया है। महाभारत में यह भी कहा गया है कि सौ कौरव भाईओं में से एक विविंगसती था और उसने कई सौ आनर्त योध्धाओं को इस महा-संग्राम में मार डाला था। महाभारत के समय में आनर्त राज्य दो हिस्सों में बंट गया था- एक की राजधानी आनर्तपुर थी और दूसरे की द्वारिका। महाभागवत में भी इस तरह का संदर्भ मिलता है।
दो सौ वर्ष पुराना वट वृक्ष

वृध्धनगर
समय के बहते हुए, आनंदपुर जब बहुत पुराना और जीर्ण हो गया तो लोग कहने लगे कि अब वह वृध्ध नगर हो गया है। धीरे धीरे उसका नाम ही बदलकर वृध्ध्नगर हो गया। यह एक ऐसा नगर था कि जहां के मंदिर, आवास, और गलियां तक वृध्ध आदमी की तरह पुराने हो चूके थे। इस नगर के चौपास बहुत से छोटे-बडे सरोवर थे। ईन सरोवरों के आसपास वड के बडे बडे अनेक पुराने पेड थे। नगर भले ही पुराना हो गया, लेकिन अब भी वह संगीत, नाट्य, शिल्प, और वास्तुशास्त्र जैसी कलाओं में अग्रेसर था तथा विद्या और व्यापार का केन्द्र था। किंतु, अनेक कारणवश उसका आगे विकास रुक गया, और गुजरात में पहले वल्लभी और बादमें पाटण प्रमुख नगर बन गये। और अब, वृध्धनगर से बदल कर इस नगर का नाम वडनगर हो गया।

चमत्कारपुर

पुराने समय में, कोढ की व्याधि से पीडित चमत्कार नाम का एक राजा जब इस नगर के पास आये हुए शक्तितीर्थ नाम के सरोवर में स्नान करने से कोढ से मुक्त हो गया, तो ईतना खुश हुआ कि उसने इस नगर का पुनःनिर्माण किया और उसका नाम भी बदलकर चमत्कारपुर रख दिया। चमत्कार राजा की कहानी कुछ इस प्रकार है कि, एक दिन मृगया (शिकार) करते हुए उसने दो हिरन का पीछा किया। ये दो हिरन में एक नर था, और एक मादा। राजा ने जब नर हिरन को अपने बाण से मार दिया, तो मादा हिरन बहुत दुखी हो कर तडप उठी और उसने राजा को शाप दिया कि वह कोढ कि व्याधि से ग्रस्त बनकर दुख से पीडित हो। जब राजा का सारा शरीर कोढ से ग्रस्त हो गया, तब उसकी रानी सहित राज्य के सब लोग उसका तिरस्कार करने लगे। वह बहुत दुखी हो कर ईधर-उधर भटकने लगा।

अंततः, एक बहुत बडे ऋषि ने उसे परामर्श दि कि शक्तितीर्थ नामक स्थल पर के सरोवर में स्नान करने से वह कोढ-मुक्त हो सकता है। तब, राजा शक्तितीर्थ आया, और उस के सरोवर के चमत्कारिक पानी से स्नान करते ही सचमुच कोढ से मुक्त हो गया। वह इतना खुश हुआ कि उसने उस नगर में अनेक भव्य मंदिरों और आकर्षक प्रासादों का निर्माण करवाकर उसे अत्यंत सुन्दर बना दिया।


याज्ञवल्क्य
चमत्कारपुर में ही, पिता ब्रह्मरथ और माता सुनंदा के घर प्रख्यात ऋषि याज्ञवल्क्य, जिन के नाम का अर्थ ही "वेदों के ज्ञाता" होता है, उनका जन्म हुआ था। याज्ञवल्क्य महान विद्वान बने। उन्हों ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' नामक ग्रन्थ लिखा। उन के आश्रम ने बहुत सारे शिष्यों को आकर्षित किया। याज्ञवल्क्य के बारे में बहुत सी रसप्रद बातें हैं। उनमें से एक बृहदरण्यक उपनिषद में पायी जाती है (३.९.१)। यह विदग्ध नामक एक शिष्य के बारे में है कि जिस को यह जानने की जिज्ञासा होती है कि, ईश्वर की संख्या कितनी है। उस शिष्य और याज्ञवल्क्य के बिच इस तरह संवाद होता हैः
बाद में, शकल के पुत्र विदग्ध ने उन से पूछा, "ईश्वर कितने हैं, याज्ञवल्क्य?"
याज्ञवल्क्य ने 'निविद' नामक मंत्र-समूह की संख्या तय करते हुए जवाब दिया, "निविद में बताया गया है उतनेः तीन सौ तीन, और तीन हजार तीन।"
"बहुत अच्छा," शकलपुत्र ने कहा, "और कितने ईश्वर हैं, याज्ञवल्क्य?"
"तैंतीस।"
"बहुत अच्छा, और कितने ईश्वर हैं, याज्ञवल्क्य?"
"छः।"
"बहुत अच्छा, और कितने ईश्वर हैं, याज्ञवल्क्य?"
"तीन।"
"बहुत अच्छा, और कितने ईश्वर हैं, याज्ञवल्क्य?"
"दो।"
"बहुत अच्छा, और कितने ईश्वर हैं, याज्ञवल्क्य?"
"देढ।"
"बहुत अच्छा, और कितने ईश्वर हैं, याज्ञवल्क्य?"
"एक।"




आनंदपुर

महाभारत के समय में, पाण्डवों और कौरवों के बिच हुए कुरुक्षेत्र के युध्ध के बाद आनर्त राज्य नष्ट हो गया। अब आनर्तपुर न तो किसी राज्य की राजधानी रहा, और न कोई राजसत्ता का केन्द्र। उसके पश्चिम में वल्लभी नाम का एक नया और शक्तिशाली नगर गुजरात की राजधानी बना। परंतु, आनर्तपुर व्यापार का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बना रहा। उसके आसपास के प्रदेश में अच्छी फसलें पैदा होती थी। उसके लोग समृध्ध और खुशहाल थे। वह इस प्रदेश का सांस्कृतिक केन्द्र बना रहा। यह नगर में शिल्पी, संगीतकार, नाट्यकार, नृत्यकार, और अन्य कलाकार पलते रहे। यहां संगीत और नाट्य कला का विकास होता रहा। और सालभर नगर में अनेक उत्सव होते रहते थे। इस जगह में एक प्रकार के आनंद-प्रमोद और खुशी के वातावरण का अनुभव होता था। इसी वातावरण से आकर्षित हो कर दूर-सुदूर के बहुत मुलाकाती यहां आते थे। दूसरे शतक तक तो इस नगर की पहचान ही खुशी और आनंद के नगर के रुप में होने लगी थी। और अब लोग उसे आनंदपुर के नाम से जानने लगे।
यह वो समय था कि जब दो महान धर्म - बौध्ध और जैन - सारे भारत और उसके भी पार फैल रहे थे। जल्द ही में खुशीओं के इस नगर आनंदपुर ने दोनों धर्म के साधुओं और अनुयायीओं को आकर्षित किया। नगर ने कई सौ बौध्ध साधुओं को पाला-पोषा। चारों ओर अनेक बौध्ध मठ बने। कुछ ही समय पहले वडनगर की सीमा पर के एक खेत में जब किसान अपना हल चला रहा था तब आकस्मिक ही जमीं में डटी बुध्ध की एक बडी प्रतिमा हाथ लगी। इसे वडनगर के संग्रहालय में रखा गया है। ख्यातनाम चीनी मुसाफर ह्युएन-संग ने सातवीं सदी में आनंदपुर की मुलाकात ली थी और उसने अपने यात्रा-वर्णन में इस नगर के बारे में विवरण लिखा है। जरुर से यहां कई शतकों तक बौध्ध धर्म पला होगा। अगर पध्धति से व्यापक पुरातत्त्वीय उत्खनन किया जाय तो इस प्रदेश पर रहे बौध्ध धर्म के प्रभाव के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है।
नवीं सदी के बाद भारत में बौध्ध धर्म कमजोर पडने लगा। इसी समय वह आनंदपुर से भी धीरे धीरे अदृष्य हो गया। उस की जगह जैन धर्म जोरों से फैलने लगा और गुजरात पर तो वह पूरी तरह छा गया। वडनगर के मध्य में स्थित दो सुंदर जैन मंदिर इस बात का प्रमाण देतें हैं कि यहां जैन धर्म की असर कितनी ज्यादा थी। सोलंकी युग (दसवीं से तेरहवी सदी) के समय में इस प्रदेश में वडनगर समृध्धि का केन्द्र बना रहा।





हरप्पा सभ्यता
आज से ६,००० से ७,००० वर्ष पूर्व दख्खन एशिया में सींधु और सरस्वती नदीओं के आसपास के प्रदेशों में हरप्पा सभ्यता का उदय हुआ। भारत के उत्तर-पश्चिम में बहुत विस्तृत प्रदेश में कई हरप्पा नगर विकसित हुए। ईसा के २,५०० पूर्व तक यह नगर अच्छी तरह विकसित हो चूके थे। पाकीस्तान के हरप्पा और भारत के गुजरात में लोथल, गोला धोरो, धोलाविरा, और अन्य जगहों पर हुए व्यापक पुरातात्त्विक उत्खनन से ऐसे लोगों की बात सामने आयी है कि जिन्हों ने उन्नत जीवन-शैली का विकास किया था।
सुमेर, बेबिलोनिया, और इजिप्त जैसी अन्य पुरानी सभ्यताओं से विपरित, हरप्पा संस्कृती ने सामान्य प्रजाजन को केन्द्र में रख कर विकास किया था। उसने ऐसी व्यवस्था और साधनों का सृजन किया कि जिससे लोगों का जीवन ज्यादा आरामप्रद, तंदुरस्त, और सुखी बन सके। उसने राजवीओं के लिये भव्य प्रासाद, मंदिर, और कब्रों का निर्माण न करके, अपने नागरिकों के लिये निर्मल पेय जल उपलब्ध हो सके इस लिये अप्रतिम व्यवस्था का निर्माण किया। हरप्पा सभ्यता के नगरों में, आज के मापदंड से नापी जाये तो भी, एकदम आधुनिक लगे ऐसी दूषित पानी के निकाल की व्यवस्था बनायी गयी थी। उसने अपने नागरिकों को सार्वजनिक स्नानागार, अपने बच्चों को विधविध शिक्षाप्रद खिलौने, और अपनी महिलाओं को सुन्दर गहनें प्रदान किये।

हरप्पा सभ्यता का विस्तार नकशा


शर्मिष्ठा

प्राचीन समय में शर्मिष्ठा एक प्राकृतिक सरोवर था। वह कपिला नदी के पानी से भरा रहता था। आज से ४,५०० साल पहले, उसके दक्षिण-पूर्व किनारे पर प्रथम मानव-वसाहत शुरु हुई थी। कुछ एक शतक के बाद यहां एक नगर सा बस गया। सरोवर के किनारे पत्थरों से बांधे गये। उसमें पानी का बहाव नियंत्रित करने हेतु उत्तर दिशा में एक पत्थर का पक्का कुंड बनाया गया। कपिला नदी का पानी पहले पूर्व दिशा के एक नाले से यह कुंड में बहाया जाता था। कुंड भरने पर पानी को दक्षिण दिशा के दूसरे नाले के जरिये सरोवर में छोडा जाता था। इस प्रकार की स्थापत्य कला के कारण वर्षा ऋतु में जब कपिला नदी में पानी का बहाव तेज हो जाता था, तब उसकी तेज गति सरोवर के किनारे को कोई नुकसान नही पहुंचाती और किनारे पर के मकान सुरक्षित बने रह्ते थे। यह कुंड के दोनों नाले पानी के बहाव के लिये खोल-बंद किये जा सकते थे। इस कुंड का नाम नागधरा पडा। शायद कपिला के बहाव में बहुत से सांप आ कर यह कुंड में फंस जाते होगे। आज तक नगर के लोग नाग-पंचमी के दिन यहां आ कर नाग-देवता की पूजा-अर्चना करते हैं और उस दिन यहां मेला भी लगता है।

नागधरा
शर्मिष्ठा सरोवर का सारा संकुल - सरोवर, केन्द्र में आया हुआ बेट, सरोवर के तल पर भूतल में पानी उतारने के लिये बनाये गये कुएं, पत्थरों से बंधे किनारे, नागधरा, पानी के बहाव के नाले, कपिला से निकाली गयी नहर, और सरोवर में जरुरत से ज्यादा पानी भर जाने पर उसे बाहर-निकाल करने का रास्ता - इस नगर के स्थपतियों के उंचे कौशल्य का अप्रतिम नमूना है। जब सरोवर में पानी भरा होता है तब उस के तल पर दक्षिण-पश्चिम दिशा में बनाये गये कुंए नही दिखाई देते। इन कुओं से जमीं में जो पानी उतरता है वह भूगर्भ में झरने पैदा करता है। नगर में आये हुए कुएं इसी झरनों से आये हुए शुध्ध पानी से भरे रहते थे। जब कभी वर्षा कम होती या नही होती तब सूखे के समय में सरोवर में पानी नही रहता। ऐसे वक्त, सरोवर के इन कुओं का पानी बहुत काम आता था।
आज तो पुरा संकुल बिस्मार हालत में है। अभी के वर्षों में उसके दक्षिण किनारे किया गया कुछ आधुनिक बांधकाम सरोवर की प्राचीनता के अनुरुप नही लगता। जरुरत इस बात की है कि सारे संकुल के बारे में पूरी तरह सोच-समझ कर उसकी प्राचीनता बनाये रखते हुए पुनःनिर्माण किया जाये। अद्वितिय पुरातत्त्वीय महत्त्व रखनेवाले स्थलों के पुनःनिर्माण के बारे में हम विश्व के अन्य स्थलों पर चलायी गयी पुनःनिर्माण की योजनाओं से बहुत कुछ सीख सकते हैं।


शर्मिष्ठा से जुडी बहुत सारी कथाएं हैं। महाभारत में ययाति की जो बात कही गयी है, और उसमें जिस सरोवर का जिक्र है वही क्या यह शर्मिष्ठा है?

समकालिन पुरातात्त्विक उत्खनन
सन १९५३-५४ में, वडनगर में प्रथम पुरातात्त्विक उत्खनन वडोदरा राज्य म्यूजियम के पुरातत्त्वविद डी। सुब्बा राव और आर. एन महेता ने किया। उस समय, यह लेखक को उनके साथ दो महिने तक सहायक के रुप में उत्खनन स्थल पर कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। उत्खनन के समापन से कुछ समय पहले सुब्बा राव ने नवीन सर्व विद्यालय के सामयिक के लिए यह लेखक, जो कि उसके तंत्री थे, को वडनगर के उत्खनन पर एक लेख दिया। बाद में उन्हों उत्खनन के बारे में विद्यालय में एक विषद वक्तव्य भी दिया। उस वक्त उनका कहना था कि, यह नगर २,५०० वर्ष से भी पहले इसी स्थल पर अपना अस्तित्व बनाये हुए था इसके उनके उत्खनन से पर्याप्त प्रमाण मिलें हैं। उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया कि इस जगह का हरप्पा सभ्यता से अनुसंधान था। उन की अवधारणा में 'इस नगर की शुरुआत एक हरप्पा वसाहत के रुप में होने की संभावना है।' जो भी हो, अभी तक इस अवधारणा की निश्चित रुप से पुष्टि कर सके ऐसे ठोस प्रमाण नही मीले हैं। लेकिन उस तरह के प्रमाण पाने के लिए विस्तृत संशोधन आवश्यक है और वह अभी तक हो नही पाया।


गुजरात राज्य के मुख्य पुरातत्त्वविद वाय। एस. रावत की राहबरी में चल रहा वर्तमान उत्खनन ऐसे अवशेष उजागर कर रहा है जिससे यह प्रमाणित हो गया है कि यह नगर बौध्ध धर्म के प्रसार के समय का समकालिन था। अर्थात, उत्खनन से मिले ठोस सबूत नगर को कम से कम ईसा के पहले शतक जितना पुराना साबित करने में कामयाब हो गये हैं। ईसा के दूसरे शतक में वडनगर, जो कि उस वक्त आनंदपुर के नाम से जाना जाता था, बौध्ध धर्म का एक जीवंत केन्द्र था ऐसे प्रमाण प्रवर्तमान उत्खन से निकल आये बौध्ध विहार और स्तुप के अवशेष दे रहे हैं। हो सकता है कि यह उत्खनन का विस्तार बढने के बाद, ऐसे प्रमाण भी हाथ लग जाय जो नगर को अधिक पुराना प्रतिपादित कर दे और डी. सुब्बा राव की अवधारणा को वास्तविकता में बदल दे।


सन २००७ में, गुजरात राज्य के पुरातत्त्व विभाग ने वडनगर में नगर के किले की दक्षिणी दिवार के बाहर उत्खनन शुरु किया। जो कि, अभी तक यह उत्खनन बहुत बडे पैमाने पर नही किया जा रहा है, फिर भी यहां से जो प्रमाण मिले हैं वे यह दृष्टिकोण साबित करने के लिए काफी हैं कि वडनगर सचमुच में बहुत प्राचीन नगर है। दूसरे शतक में बना एक बौध्ध विहार का १८ x १८ मीटर का ढांचा पाया गया है, जो कि बौध्ध साधुओं के रहने के १२ छोटे छोटे कमरों का बना हुआ है। यह स्थान पर वाय। एस रावत के दल ने जो कुछ खोद निकाला है उस की देश-विदेश के बौध्ध निष्णातों और पुरातत्त्वविदों ने जांच करने के बाद यह बात की पुष्टि की है कि यहां पर वास्तव में बौध्ध विहार और स्तुप था। सातवीं सदी में वडनगर, जो कि उस वक्त आनंदपुर कहा जाता था, आये चीनी यात्री ह्युएन-संग ने अपनी यात्रा-पोथी में लिखा है कि यह नगर में कोई दस संघाराम और एक हजार बौध्ध साधु रहते थे। खोद निकाला गया यह बौध्ध विहार ह्युएन-संग की लिखी गई बात को एकदम सच ठहराती है।


यह जगह पर की गई वर्तमान खुदाई से अभी तक विभिन्न प्रकार के दो हजार से भी ज्यादा पुरातात्त्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन में एक बौध्ध प्रतिमा, छोटी-छोटी मूर्तियां, भिक्षा-पात्र, तांबे और चांदी के सिक्के, एक टेराकोट्टा की बनी प्रतिमा का पघडी वाला सर, शेल (shell) की चूडियां, गले के हार के मनके, चमकदार बर्तनों के लेखवाले टूकडे, जैसी चीजें समाविष्ट हैं।
ईंटो के ढांचे सोलंकी युग से लेकर रोमन युग तक हुई बांधकाम प्रवृत्ती की गवाही देते हैं।


क्या सातवीं सदी में ह्युएन-संग की मुलाकात के वक्त ऐसे बौध्ध विहार वडनगर में मौजूद थे?


कपिला नदी


कपिला नदी शायद ऐसी दिखती होगी

कपिला नदी वडनगर के पुराने भूतकाल से जुडी हुई है। आज से 4,500 वर्ष पूर्व इस नदी के तट पर पहली मानव वसाहत बनी होगी। नदी का उदगम स्थान अरवल्ली की पर्वतमाला में था। उस वक्त यह क्षेत्र वनों से एकदम हरा था। वह कोई बहुत बडी नदी नही थी, लेकिन वह एक बारमासी नदी जरुर थी। उसके रास्ते में उससे कई छोटे-बडे सरोवर बने हुए थे। ऐसा ही एक सरोवर शर्मिष्ठा था। यहां नदी और सरोवर के तट पर जीवन और संस्कृती पलें। यहीं पर याज्ञवल्क्य ऋषि का नगर चमत्कारपुर बसा हुआ था।
आजकल तो कपिला नदी अदृश्य हो चूकी है, लेकिन सन १९५० तक वह कम से कम वर्षा ऋतु में तो यहां अवश्य बहा करती थी। लुप्त हो चूकी सरस्वती नदी के बारे में पिछले कुछ सालों से वैज्ञानिकों में जो जिज्ञासा उत्पन्न हुई है, उसको लेकर पचिम भारत की लुप्त हुई नदीयों के बारे में वैज्ञानिक संशोधन हुए हैं। सेटेलाईट से खींची गयी तस्वीरों ने प्रमाण दियें हैं कि कुछ हजार वर्ष पूर्व इस प्रदेश की धरती पर की परिस्थिती और यहां का हवामान आज से काफि भिन्न प्रकार के थे। आज की तरह यह प्रदेश इतना सूखा नही था, बल्कि यहां घने जंगल और बहुत सारे नदी-नाले थे।